कैसे सहा
सहम के
बुझना मन का
देखा अपनों का
फीकापन
उनकी ऊबें ,चिड
ही होती तो चल जाता
मैने स्वयं को
उनके मन से
उतरते देखा ,
जलते चिरागों को
बुझते बुझाते देखा ,
कैसे रहे रिश्ते
स्वार्थ की डोर
से बंधे
अनुपयोगी होते ही
पल में टूट गए ,
बिखर गए सब
बंधन सारे
रह गए
शेष
भुलावे झूठे .
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अनुराग चंदेरी
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