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बुधवार, 19 सितंबर 2012

बिखर गया हूँ मै

बिखर गया हूँ मै
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मै बचना चाहता हूँ
एकांत से 
मौन से 
और चिंतन से भी 
भीड़ में रहना 
लगता है अच्छा 
दोस्तों की बाते 
और मंदिरों के 
उत्तेजक भजन 
बचाते हैं मुझे 
मेरे से 
मै अब बच गया हूँ 
उस आदमी से जो 
सच में 
कहीं रहता था 
मेरे अन्दर 
अब बह नहीं कहता मुझसे 
की मै
करूँ सच की बात 
और इसी सच की खातिर 
चलूँ अकेला 
मेने मुझसे ही संवादहीनता 
चाही है 
इसलिए ही तो 
बन सका हूँ 
एक सच्चा धार्मिक 
और सामजिक आदमी 
अब आप देख सकते हैं 
मुझे 
मंदिरों की 
उमड़ती भीड़ में 
नारे लगाते हुए 
या किसी शादी समारोह में 
भोजन परोसते हुए ,
अब  पिताश्री 
करने लगे हैं 
मेरी प्रशंशायें 
और माँ तो 
बलैयाँ लेकर भी 
नहीं अघातीं 
तारीफ कर कर सोचती है 
कितना बदल गया हूँ मै
इस बदलाव में 
सुधार दिखता है सबको 
कोई नहीं कहता 
कि कितना बिखर गया हूँ मै------------अनुराग चंदेरी 

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

बुद्धिमान की गाली भली

बस एक प्रेम को ही छोड़ कर 
सब ही सुख देता है 
चाहे खाना खाना हो 
और किसी अपंग को खिलाना हो 
या फिर किसी की मदद करना हो 
बिलकुल निस्वार्थ भाव से 
ये प्रेम ही पीड़ा बन जाता है 
किसी को चाहना ही 
गुनाह बन जाता है 
भूल जाता है मन 
की चिड़ियों की चहक में
ब्रक्षों के समीर संग नाचने में
नदियों के करतल नाद में
पहाड़ों के मौन में
बादलों की हसी में
फूलों के मकरंद में
खामोश शाम में भी
छिपी है मिठास
शहद से ज्यादा
मीठी
एक प्यार ही सब कुछ कैसे
हो सकता है
उस मूर्ख प्रेमी से
जो समझे भाषा केवल विषाद की
और समर्पण के फूलों में
उसे चुभें शूल अभिसार के
सही कहा है
मूर्ख के प्रेम से
बुद्धिमान की
गाली भली --------अनुराग चंदेरी

सोमवार, 17 सितंबर 2012

दर्द के टापुओं पर 
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बो जो भूल गए 
उन्हें भी भूलता नहीं 
जिन्हें याद करता हूँ
उन्हें याद आता नहीं 
जिंदगी के अजीव उसूल हैं
जो बने हैं
मेरी मृग तृष्णा के अंग
उन्हें मै कतई नहीं सुहाता
मौज ए जिंदगी का सवाल
पहुंचा रहा
दर्द के टापुओं पर
जहाँ कैद है
मेरी खुशियाँ और मृग त्रशनाएं,
कृष्ण मृग सा भटकाव लिए
कितनी कुलांचें भरता हूँ
जो कहीं और नहीं
उसे खोजता फिरता हूँ
ना बन सका मै भागी
किसी के मन का
बस सोच के ही डरता हूँ
मेरी संवेदनाएं भी
सर पटक पटक के
रोटी और बिलखती रहीं
किसी की भूल का मै
विशाल भूभाग रहा ,
किंचित भी न पा सका
एक मुट्ठी भी भू रज
जहाँ बस पाता मै
और मेरेपन का कण कण
विषाद के अभागे पलों मै
उभर आई है
दरारें मेरे सूखे ओठों मै भी
मेरी चेतना के
चाँद बुझ गए हैं
अब जलता हूँ बन कर सूरज
तपन से पीड़ित मै
आग ही आग
मन में लिए चलता हूँ
कोई एक बूँद शीतल
क्यूँ डाले
जब है त्रश्नाये मन की  -
तो तरसे मन और दर्द को ही पाले -------
अनुराग चंदेरी 

रविवार, 16 सितंबर 2012

नदी का मन

टूट ता जाये किनारा 
और सिमटता जाए 
नदी का मन भी 
आखिर किस 
हद में रहे बो 
ओ किनारे के शागिर्द 
ऐसी मुक्ति भी 
प्राण घातक है 
जो किसी को भी
न रोक पाए 
न अपना बना पाए --------अनुराग चंदेरी

बुधवार, 12 सितंबर 2012

दिनेश रघुवंशी----यकीं आता नहीं

यकीं आता नहीं दिल को, कहीं पर खो गये तुम भी
सफ़र में ज़िन्दगी भर शूल कितने बो गये तुम भी
किसी को भी यहाँ अपना समझना भूल है सच में
तुम्हैं अपना कहा जिस पल, पराये हो गये तुम भी 
------दिनेश रघुवंशी--------------

पता नहीं...गजानन माधव मुक्तिबोध

पता नहीं...गजानन माधव मुक्तिबोध
पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले

किस साँझ मिले, किस सुबह मिले!!

यह राह ज़िन्दगी की

जिससे जिस जगह मिले
है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के

जिनके भीतर

है कोई घर

बाहर प्रसन्न पीली कनेर

बरगद ऊँचा, ज़मीन गीली

मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!

तब बैठ एक

गम्भीर वृक्ष के तले

टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,

कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना

घुलना मिलना!!

यह सही है कि चिलचिला रहे फासले,

तेज़ दुपहर भूरी

सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला

काल बाँका-तिरछा;

पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्रता का हाथ

फैलेगी बरगद-छाँह वही

गहरी-गहरी सपनीली-सी

जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा

स्वर्गीय उषा

लाखों आँखों से, गहरी अन्तःकरण तृषा

तुमको निहारती बैठेगी

आत्मीय और इतनी प्रसन्न,
मानव के प्रति, मानव के

जी की पुकार
जितनी अनन्य!
लाखों आँखों से तुम्हें देखती बैठेगी

वह भव्य तृषा

इतने समीप

ज्यों लालीभरा पास बैठा हो आसमान

आँचल फैला,

अपनेपन की प्रकाश-वर्षा

में रुधिर-स्नात हँसता समुद्र

अपनी गम्भीरता के विरुद्ध चंचल होगा।

मुख है कि मात्र आँखें है वे आलोकभरी,

जो सतत तुम्हारी थाह लिए होतीं गहरी,

इतनी गहरी

कि तुम्हारी थाहों में अजीब हलचल,

मानो अनजाने रत्नों की अनपहचानी-सी चोरी में

धर लिए गये,

निज में बसने, कस लिए गए।

तब तुम्हें लगेगा अकस्मात्,

...........

ले प्रतिभाओं का सार, स्फुलिंगों का समूह

सबके मन का

जो बना है एक अग्नि-व्यूह

अन्तस्तल में,

उस पर जो छायी हैं ठण्डी

प्रस्तर-सतहें

सहसा काँपी, तड़कीं, टूटीं

औ' भीतर का वह ज्वलत् कोष

ही निकल पड़ा !!

उत्कलित हुआ प्रज्वलित कमल !!

यह कैसी घटना है...

कि स्वप्न की रचना है।

उस कमल-कोष के पराग-स्तर

पर खड़ा हुआ

सहसा होता प्रकट एक

वह शक्ति-पुरुष

जो दोनों हाथों आसमान थामता हुआ

आता समीप अत्यन्त निकट

आतुर उत्कट

तुमको कन्धे पर बिठला ले जाने किस ओर

न जाने कहाँ व कितनी दूर !!

फिर वही यात्रा सुदूर की,

फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की,

कि वही आत्मचेतस् अन्तःसम्भावना,

...जाने किन खतरों में जूझे ज़िन्दगी !!

अपनी धकधक

में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,

या निःस्वात्मक विकास का युग

जिसकी मानव गति को सुनकर

तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के

चरण-तले जनपथ बनकर !!
वे आस्थाएँ तुमको दरिद्र करवायेंगी

कि दैन्य ही भोगोगे

पर, तुम अनन्य होगे,

प्रसन्न होगे !!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकायेगी

जिस जगह, जहाँ जो छोर मिले

ले जाएगी...

...पता नहीं, कब, कौन, कहाँ, किस ओर मिले।

कुछ का व्यवहार बदल गया / श्रीकांत वर्मा

कुछ का व्यवहार बदल गया। कुछ का नहीं 
बदला।
जिनसे उम्मीद थी, नहीं बदलेगा
उनका बदल गया।
जिनसे आशंका थी,
नहीं बदला।
जिन्हें कोयला मानता था
हीरों की तरह 
चमक उठे।
जिन्हें हीरा मानता था
कोयलों की तरह
काले निकले।

सिर्फ अभी रुख बदला है, आँखे बदली है,
रास्ता बदला है।
अभी देखो
क्या होता है,
क्या क्या नहीं होता।
अभी तुम सड़कों पर घसीटे जाओगे,
अभी तुम घसिआरे पुकारे जाओगे
अभी एक एक करके
सभी खिड़कियाँ बन्द होंगी
और तब भी तुम अपनी
खिड़की खुली
रखोगे,
इस डर से कि
जरा सी भी अपनी
खिड़की बन्द की तो
बाहर से एक पत्थर
एक घृणा का पत्थर
एक हीनता का पत्थर
एक प्रतिद्वन्दिता का पत्थर
एक विस्मय का पत्थर
एक मानवीय पत्थर
एक पैशाचिक पत्थर
एक दैवी पत्थर
तुम्हारी खिड़की के शीशे तोड़ कर जाएगा
और तुम पहले से अधिक विकृत नजर आओगे
पहले से अधिक
बिलखते बिसूरते नजर पड़ोगे
जैसा कि तुम दिखना नहीं चाहते
दिखाई पड़ोगे।

यह कोई पहली बार नहीं है
जब तुम्हें मार पड़ी है
कम से कम तीन तो
आज को मिला कर
हो चुके
मतलब है तीन बार,
मार।
और ऐसी मार कि तीनों बार
बिलबिला गया
निराला की कविता याद आती है
"जब कड़ी मारे पड़ीं,
दिल हिल गया।"

बफा

इस ज़माने में 
कहाँ बफा ढूडने की कोशिश 
करते हो --यारो ????
वो ज़माने और हुआ करते थे 
जब 
मकान कच्चे 
और लोग सच्चे 
हुआ करते थे ---अज्ञात

-अज्ञेय---तुम्हें नहीं तो किसे और-

तुम्हें नहीं तो किसे और----अज्ञेय

तुम्हें नहीं तो किसे और 
मैं दूँ 
अपने को 
(जो भी मैं हूँ)? 
तुम जिस ने तोड़ा है 
मेरे हर झूठे सपने को— 
जिस ने बेपनाह 
मुझे झंझोड़ा है 
जाग-जाग कर
तकने को
आग-सी नंगी, निर्ममत्व
औ' दुस्सह
सच्चाई को—
सदा आँच में तपने को—
तुम, ओ एक, निःसंग, अकेले,
मानव,
तुम को—मेरे भाई को!

कि हम नहीं रहेंगे --अज्ञेय

कि हम नहीं रहेंगे
--अज्ञेय
हमने 
शिखरों पर जो प्यार किया
घाटियों में उसे याद करते रहे!
फिर तलहटियों में पछताया किए
कि क्यों जीवन यों बरबाद करते रहे!

पर जिस दिन सहसा आ निकले
सागर के किनारे—
ज्वार की पहली ही उत्ताल तरंग के सहारे
पलक की झपक-भर में पहचाना
कि यह अपने को कर्त्ता जो माना—
यही तो प्रमाद करते रहे!

शिखर तो सभी अभी हैं,
घाटियों में हरियालियाँ छाई हैं;
तलहटियाँ तो और भी
नई बस्तियों में उभर आई हैं।

सभी कुछ तो बना है, रहेगा:
एक प्यार ही को क्या
नश्वर हम कहेंगे—
इस लिए कि हम नहीं रहेंगे?

एक रेशा चमक का

खो कर सब 
मै बैठा 
उदासी से बतियाता 
रहा ,तभी देखा कि
एक रेशा चमक का 
आँखों मे छिपा अब भी 
कुछ कहना चाह रहा है 
मैने उसे भी 
अबसर दिया 
कि कहे अपनी बात 
बह बोला
उठो ,चलो
हाथ पर हाथ मत रखो
अभी लड़ना है बहुत
आगे बढ़ना है बहुत ------अनुराग चंदेरी

गफलत में

जिंदगी कितनी 
गफलत में 
फ़साये है 
कभी लगता है 
की जीता जाऊं 
दोड़ता जाऊं 
समय से आगे 
और कभी लगता है 
की चिता खुद की 
मै ही सजाऊं ,
सोच के अस्थिर
जंगल में
भ्रम की नदियाँ
ले चली हैं बहा कर मुझे
क्या पता कहाँ -----------अनुराग चंदेरी

जान लेते हो सब

अब नहीं कहना जरा भी
तुमसे दिल कि बात 
क्या शख्स हो यार 
बगैर कहे जान लेते हो सब ------अनुराग चंदेरी

मै प्रिय नहीं

विदाई के चौराहे पर 
जाते हुए 
मुझे बुरा लगा 
यह नहीं कि 
अब मै प्रिय नहीं 
तुम्हारा 
बल्कि यह कि 
कमीं रह गई कहाँ 
मेरे उस साथ मै 
जो कभी तुम्हें 
लगता था 
तुम्हारे जीवन से भी प्यारा ----अनुराग चंदेरी

यादें उसकी

टूटे मन 
के साथ हँसना
और छूटे साथी 
के बिना जीना 
सिखाओ यारो
यादें उसकी 
शराब से ज्यादा 
नशीली हैं 
उसकी यादों से मीठा
कोई जाम ले आओ यारो
रोने से काम नहीं बनता अब
उसके बिना
जीने का तरीका
सिखाओ यारो ------अनुराग चंदेरी

तुम्हारे धोखे

अब तुम नहीं मानते 
मेरे यकीनों को 
तो क्या 
बे आज भी 
हैं उतने सच्चे 
जितने तुम्हारे धोखे 
मन आज 
तुम्हारा फैशन 
में आकर 
चाहता है की नए 
कपडे पहने जाएँ
नए दोस्तों के साथ
मौज की लहरों पे
सबार हुआ जाये
लेकिन एक दिन
ये लहरें भी
दिखेंगीं तुम्हे
उतनी दूर
जितना तुम मुझे
दूर देखना
चाहते हो -----अनुराग चंदेरी

झूंठ

कोई झूंठ भी आकर 
झूंट ही नहीं कहता 
की झूंठा है बो उतना ही 
जितने की 
ये बादल बरसात के------अनुराग चंदेरी

बजन

उतारने को मन का बजन 
बो कितना खोजा किया करते थे 
सारी बाते पल पल की
बांटा करते थे , 
आज उनके जीवन में 
बांटने आ गए हैं 
कई लोग तो 
क्यूँ याद करेंगे 
पुराने तटों को 
जहाँ प्रेम की लहरे 
उठती थी उफान से
और कर देती थीं पार
किनारों को
आज मन की सूखी नदिया
यादों की बजरी में भी
छानती है
उनकी मीठी बातों
के मोती ----------------------अनुराग चंदेरी

आम-----हरिओम राजोरिया

आम

असमय हवा के थपेड़ों से
झड़ गये आम
अपने बोझ से नहीं
झड़े समय की मार से

बेमौसम अप्रैल की हवाओं ने
एक घर भर दिया कच्चे आमों से
आम न हों जैसे
भगदड़ में मारे गये
शव हों मासूम बच्चों के

जो आँखों ने सँजोये थे
झड़ गये वे स्वप्न
गयी कई दोपहरों की रखवाली
गयी चमक बूढ़ी आँखों की
इन्तजार गया कई महीनों का
पहले झड़े आम
फिर झर-झर झरी
आँखों से पानी की धार

पहली गिरी अमिया के साथ
चीखी एक औरत
फिर ताबड़तोड़
सब दिशाओं को लपके
ऐसे झड़े आम
कि झड़ते ही गये
झड़ते ही गये।
-----------------------------हरिओम राजोरिया

संस्कार

संस्कार

खाना खाते वक्त
गिर पड़ता है मुँह का कौर
पता नहीं कौन भूखा है ?
अपनी संस्कारजन्य पीड़ा
परेशान करती है

अभावों को रौंदता हुआ
घाटी तो चढ़ आया
पर बार-बार देखता हूँ पीछे
बार-बार होता हूँ उदास।===========हरिओम राजोरिया

h rajoriyas poem ------

a great and most loving part of h rajoriyas poem ------

कूप-मण्डूकता का पाखाना है मेरे घर में
पोथियों के ढेर में कहाँ जाकर छुपाऊँ चेहरा
अपने मन को कब तलक बरगलाऊँ
पीढ़ियों का सिंचित पाखण्ड
आया है मेरे हिस्से में
किस जल से धोऊँ अतीत की कालिख
इस पवित्रता से कैसे पीछा छुड़ाऊँ !

बेनूर

तुम्हे इश्क
नहीं
सो बेनूर हो
दर्द से
क्या सिम्त मेरी
तुम्हे
बता पाएगी
की कितना
तड़पता हूँ
तेरी याद मे.-----------अनुराग चंदेरी

शेष

कोई दिन ऐसा कहाँ रहा शेष 
जिसमे थे नहीं तुम विशेष 
फिर भी झेला किया मै
हर उस अबहेलना को 
जो देती रही 
एक नयी सहानुभूति 
लेकिन संवेदनाओं के 
जग में निराशा 
उसे हो जिसे कुछ पाना हो 
मैने तो 
पायी है जिंदगी 
खुद को ही खोकर -------अनुराग चंदेरी

चुप्पी

जीवन के परे 
जीवन की बाते 
सिखाया किये पिता 
प्रार्थनाओं में 
माँगना सीखा किये 
बचपन से ही 
माँ ने भी 
हौसले की जगह 
चमत्कार को मानना सिखाया 
अक्सर मेरा बाल मन पूछता 
की मेरे ॐ जय जगदीश गाने से
क्या होगा
माँ कहती क़ि
स्वर्ग मिलेगा बेटा
और बहां
माँ कहती क़ि
अप्सराएँ होगी
बहुत सुन्दर
मैने पूछा -माँ
तुझे भी कुछ मिलेगा ?
माँ चुप रहती
और आज भी चुप है
स्वर्ग में भी इस चुप्पी का
कोई उत्तर नहीं
ये तो धर्मगुरु बताएं --------अनुराग चंदेरी

munawwar rana

किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ादारी नहीं होगी
हमें मालूम है तुमको यह बीमारी नहीं होगी--munawwar rana

शेष कुछ भी

डॉ. के. राधाकृष्णन को समर्पित ------

हमारे वैज्ञानिक 
बड़े ही हैं धार्मिक 
जनेऊ को तीन बार 
कान पे चढ़ा ,
जय श्री राम कह 
खोजने जाते है 
की कण की खोज तो
वेदों में हो गई है और 
आज है जो हल्ला
विज्ञान के नाम पर
यूरोप का
बह तो पूंजीवाद का
कुचक्र है
सच तो है ये की
नहीं बचा है शेष कुछ भी
जो खोजा जाये
ऋषि मुनि
सब कर गए खोज
तो हम क्या करेंगे
जय श्री राम
जय बाला जी ही
तो कहेंगे ----------------अनुराग चंदेरी