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बुधवार, 19 सितंबर 2012

बिखर गया हूँ मै

बिखर गया हूँ मै
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मै बचना चाहता हूँ
एकांत से 
मौन से 
और चिंतन से भी 
भीड़ में रहना 
लगता है अच्छा 
दोस्तों की बाते 
और मंदिरों के 
उत्तेजक भजन 
बचाते हैं मुझे 
मेरे से 
मै अब बच गया हूँ 
उस आदमी से जो 
सच में 
कहीं रहता था 
मेरे अन्दर 
अब बह नहीं कहता मुझसे 
की मै
करूँ सच की बात 
और इसी सच की खातिर 
चलूँ अकेला 
मेने मुझसे ही संवादहीनता 
चाही है 
इसलिए ही तो 
बन सका हूँ 
एक सच्चा धार्मिक 
और सामजिक आदमी 
अब आप देख सकते हैं 
मुझे 
मंदिरों की 
उमड़ती भीड़ में 
नारे लगाते हुए 
या किसी शादी समारोह में 
भोजन परोसते हुए ,
अब  पिताश्री 
करने लगे हैं 
मेरी प्रशंशायें 
और माँ तो 
बलैयाँ लेकर भी 
नहीं अघातीं 
तारीफ कर कर सोचती है 
कितना बदल गया हूँ मै
इस बदलाव में 
सुधार दिखता है सबको 
कोई नहीं कहता 
कि कितना बिखर गया हूँ मै------------अनुराग चंदेरी 

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