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सोमवार, 17 सितंबर 2012

दर्द के टापुओं पर 
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बो जो भूल गए 
उन्हें भी भूलता नहीं 
जिन्हें याद करता हूँ
उन्हें याद आता नहीं 
जिंदगी के अजीव उसूल हैं
जो बने हैं
मेरी मृग तृष्णा के अंग
उन्हें मै कतई नहीं सुहाता
मौज ए जिंदगी का सवाल
पहुंचा रहा
दर्द के टापुओं पर
जहाँ कैद है
मेरी खुशियाँ और मृग त्रशनाएं,
कृष्ण मृग सा भटकाव लिए
कितनी कुलांचें भरता हूँ
जो कहीं और नहीं
उसे खोजता फिरता हूँ
ना बन सका मै भागी
किसी के मन का
बस सोच के ही डरता हूँ
मेरी संवेदनाएं भी
सर पटक पटक के
रोटी और बिलखती रहीं
किसी की भूल का मै
विशाल भूभाग रहा ,
किंचित भी न पा सका
एक मुट्ठी भी भू रज
जहाँ बस पाता मै
और मेरेपन का कण कण
विषाद के अभागे पलों मै
उभर आई है
दरारें मेरे सूखे ओठों मै भी
मेरी चेतना के
चाँद बुझ गए हैं
अब जलता हूँ बन कर सूरज
तपन से पीड़ित मै
आग ही आग
मन में लिए चलता हूँ
कोई एक बूँद शीतल
क्यूँ डाले
जब है त्रश्नाये मन की  -
तो तरसे मन और दर्द को ही पाले -------
अनुराग चंदेरी 

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