Powered By Blogger

बुधवार, 12 सितंबर 2012

जली हुयी राख

हथेलियों मै 
सूखी बजरी ,
पहाड़ों मै 
छिपता उदास 
चाँद ,
नदी का 
शांत तट ,
चिलचिलाती धूप,
और भवकती
ये बेचैनी
धधकते मन को
और कितना बारेगी
जली हुयी राख
जला नहीं करती --------------------अनुराग चंदेरी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें