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रविवार, 16 सितंबर 2012

नदी का मन

टूट ता जाये किनारा 
और सिमटता जाए 
नदी का मन भी 
आखिर किस 
हद में रहे बो 
ओ किनारे के शागिर्द 
ऐसी मुक्ति भी 
प्राण घातक है 
जो किसी को भी
न रोक पाए 
न अपना बना पाए --------अनुराग चंदेरी

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