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मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

 उसकी आँखे 
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घर छोड़ कर 
मै चला कुछ दूर 
तो रोकने लगा दरवाजा
आ कर सबसे पहले कहने लगा
मुझे बस एक बार   और
जोर से बंद कर दो
भले जोर से ही सही
तुम्हारे स्पर्श की प्रीत
मन को खुश कर देगी
उसकी बात पूरी हुयी ही ना थी
की चारपाई भी आ कर
करने लगी आग्रह
की मै कुछ क्षण विश्राम के
उसके साथ बिता लूं
तभी कुर्सियां खड़ी हो गई आ कर कतार मे
आकर करने लगी आग्रह
की मै ना जाऊं घर छोड़ कर
उन्हें इस तरह तोड़ कर
पुराने जूते भी रोकने लगे
स्टूल ,टेबल ,दरी और चटाई भी
टोकने लगे
पुराने पेन भी
मेरे हाथो को थाम कर
खींचने लगे घर की ओर
तभी  कंप्यूटर 
क्रोध  से कहने लगा
अच्छा !
मोबाइल से ऐसी प्रीत
उसे साथ लिए
जाते हो
और मुझे ?
चूल्हे , कुकर
करछुल , भगोनी
हांड़ी और तवा
पंखे टी . व्ही .
सोफा , और डबल बेड
झाड़ू   और मटके
जग और कप  भी 
भी मोन हो कर खड़े हो गए 
मै तब भी ना रुका
चलता रहा , बढ़ता रहा
मन को कर स्थिर प्रज्ञ
मन मे नया कुछ सजता रहा
तभी मोड़ पर
मेरी लायब्रेरी
की प्रिय पुस्तक
"सत्य के साथ प्रयोग "
गाँधी जी की , पर्ल. एस . बक
की "धरती माता "
के साथ खड़ी
मुझे घूर रही थी
उसकी दोनों आँखे
डबडबाई   सी
बस चुप सी
कुछ भी नहीं कहती थी
सहसा
मेरी आँखे भी
बरसने लगीं
और------------------
मेरी नींद खुल गई
मैने तकिये के
पास बिखरी दोनों किताबो को
छाती से लगा लिया .
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अनुराग चंदेरी
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