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रविवार, 8 अप्रैल 2012

                   श्राप  ना दो                  
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 तुझ बिन 
                                                                                                                                                      जीना मानो 
 
मौत को आमंत्रण हो
तुझ बिन
जीना मानो
धरती से दूर हो जाना हो
तुझ बिन
जीना मानो
खुद से अलगाव हो
प्रिय
मत जाओ इतना दूर तुम
की फिर लौट के ना आ सको
जीवन क्या
लौट आता है सूरज सा  दोवारा
सुबह नहीं होती दूरियों कि
निकट न सही
तो दूर मत जाओ
इस ह्रदय के आँगन में
बन कर ख़ुशबू
अमिट विशवास कि छा जाओ
एक दिन तो जाना ही होगा दूर
तुम प्रयासों के पंख मत उगाओ
स्वप्नों के जो वीज बोये थे
उन को
उग आने दो
जीवन में आभा ख़ुशी कि
बिखर जाने दो
मत जाओ दूर
ह्रदय से
भले ही
तन को निकट न आने दो
मन कि मीतुल
बारम्बार बुलाती है
तुम समझो प्रीत मेरी
तुमको पाना  जीत मेरी
मुझे इस जग में
पराजय का घूँट न दो
हो जाओ मेरी मन से
तन कि भले शीत न दो
प्यार के अनुपम धागों से
इस रिश्ते को बाँधा है
अपने भय कि अग्नि से
बिखराव कि जीत न दो
प्रिय
मेरे मन में बसती हो जैसे
सांसें हो इस तन में
मेरे जीवन के अधरों पर
मीठे सुर कि कोई रागिनी दो
लिपट जाओ अंक से मेरे
मानो बादल से बिजली लिपटी हो
प्रिय
दूरियों के  गायन में दुःख का संगीत सजता है
जीवन मातम बन पल पल
आंसुओं   से सजता है
मेरी आँखों को
जलने का श्राप न दो
मत जाओ दूर
मुझे तुम -मय  हो कर जीने दो
 अनुराग चंदेरी
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